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राष्ट्र कवियत्री ःसुभद्रा कुमारी चौहान की रचनाएँ ःबिखरे मोती

एकादशी

३)
एक दिन डाक्टर साहब अपने दवाखाने में बैठे थे कि एक घबराया हुआ व्यक्ति जो देखने से बहुत साधारण परि- स्थिति का मुसलमान मालुम होता था, उन्हें बुलाने आया। डाक्टर साहब के पूछने पर उसने बतलाया कि उसकी स्त्री बहुत बीमार है। लगभग एक साल पहिले उसे बच्चा हुआ था उस समय वह अपने मां-बाप के घर थी। देहात में उचित देख-भाल न हो सकने के कारण वह बहुत बीमार हो गई तब रहमान उसे अपने घर लिवा लाया। लेकिन दिनों-दिन तबियत खराब ही होती जाती है। डाक्टर साहब उसके साथ ताँगे पर बैठकर बीमार के देखने के लिए चल दिए । एक तंग गली के मोड़ पर ताँगा रुक गया। यहीं ज़रा आगे कुलिया से निकल कर रहमान का घर था। मकान कच्चा था सामने के दरवाजे पर एक टाट का परदा पड़ा था जो दो-तीन जगह से फटा हुआ था। उस पर किसी ने पान की पीक मार दी थी। जिससे मटियाला सा लाल धब्बा बन गया था। सामने ज़रा सी छपरी थी और बीच में एक कोठरी । यही कोठरी रहमान के सोने, उठने-बैठने की थी और यही रसोई-घर भी थी। रहमान बीड़ी बनाया करता था । गीले दिनों में यही कोठरी बीड़ी बनाने का कारखाना भी बन जाती थी। क्योंकि छपरी में बौछार के मारे बैठना मुश्किल हो जाया करता था । कोठरी में दूसरी तरफ़ एक दरवाज़ा और था जिससे दिख रहा था कि पीछे एक छोटी सी छपरी और है जिसके कोने में टट्टी थी और टट्टी से कुछ कुछ दुर्गन्धि भी आ रही थी। रहमान पहिले भीतर गया, डाक्टर साहब दरवाज़े के बाहर ही खड़े रहे। बाद में वे भी रहमान के बुलाने पर अन्दर गये। उनके अन्दर जाते ही एक मुर्गी जैसे नवागंतुक के भय से कुड़-कुड़ाती हुई, पंख फट-फटाती हुई; डाक्टर साहब के पैरों के पास से बाहर निकल गई। डाक्टर साहब के बैठने के लिए रहमान ने एक स्टूल रख दिया। उसकी स्त्री खाट पर लेटी थी ।

वहाँ की गंदगी और कुंद हवा देख कर डाक्टर साहब घबरा गये । बीमार की नब्ज़ देखकर उन्होंने उसके फेफड़ों को देखा, परन्तु सिवा कमज़ोरी के और कोई बीमारी उन्हें न देख पड़ी ।
वे बोले--इन्हें कोई बीमारी तो नहीं है, यह सिर्फ़ बहुत ज्यादः कमज़ोर हैं। आप इन्हें शोरवा देते हैं ?
रहमान--शोरवा यह जब लें तब न ? मैं तो कह कह के तंग आ गया हूं। यह कुछ खाती ही नहीं। दूध और साबूदाना खाती हैं उससे कहीं ताकत आती है ?
'क्यों' डाक्टर साहब ने पूछा "क्या इन्हें शोरवे से परहेज़ है ?
रहमान--परहेज़ क्‍या होगा डाक्टर साहब ? कहती हैं कि हमें हज़म ही नहीं होता ।
डाक्टर साहब ने हँसकर कहा--वाह, हज़म कैसे न होगा, हम तो कहते हैं, सब हज़म होगा।
-"डाक्टर साहब इतनी मेहरबानी और कीजिएगा कि शोरवा इन्हें आपही पिला जाइए, क्योंकि मैं जानता हूँ यह मेरी बात कभी न मानेगीं।

डाक्टर साहब रहमान की स्त्री की तरफ़ मुड़कर बोले-- कहिये आप हमारे कहने से तो थोड़ा शोरवा ले सकती हैं न ? हज़म कराने का जिम्मा हम लेते हैं । उसने डाक्टर के आग्रह का कोई उत्तर नहीं दिया सिर्फ़ सिर हिलाकर अस्वीकृति की सूचना ही दी। उसके मुँह पर लज्जा और संकोच के भाव थे ! उसका मुँह दूसरी तरफ़ था जिससे साफ़ ज़ाहिर होता था कि वह डाक्टर के सामने अपना मुँह ढांक लेना चाहती है । डाक्टर साहब ने फिर आग्रह किया--आपको आज मेरे सामने थोड़ा शोरबा लेना ही पड़ेगा उससे आपको ज़रूर फ़ायदा होगा ।

इसपर भी उसने अस्वीकृति-सूचक सिर हिला दिया, कुछ बोली नहीं! इतने से ही डाक्टर साहब हताश न होने वाले थे। उन्होंने रहमान से पूछा कि शोरवा तैयार हो तो थोड़ा लाओ इन्हें पिलादें ।

रहमान उत्सुकता के साथ कटोरा उठाकर पिछवाड़े साफ़ करने गया । इसी अवसर पर उसकी स्त्री ने आँखें उठाकर अत्यन्त कातर दृष्टि से डाक्टर साहब की ओर देखते हुए कहा 'डाक्टर साहब मुझे माफ़ करें मैं शोरबा नहीं ले सकती"

स्वर कुछ परिचित सा था और आँखों में एक विशेष चितवन. .....जिससे डाक्टर साहब कुछ चकराए। एक धूंधली सी स्मृति उनके आँखों के सामने आ गई उनके मुँह से अपने आप ही निकल गया "क्यों" ?
छलकती हुई आँखों से स्त्री ने जवाब दिया "आज एकादशी है"।

डाक्टर साहब चौंक से उठे । विस्फारित नेत्रों से उसकी ओर देखते रह गये ।

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उसी दिन से डाक्टर मिश्रा भी शुद्धी और संगठन के पक्षपाती हो गये ।

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